सक्ती

भारत जागरण मंच के एक राष्ट्र-एक चुनाव अभियान पर विशेष आलेख

आलेख/चितरंजय पटेल, सक्ती-   भारत कृषि प्रधान देश के रूप में विख्यात है, पर लोग आज मजाकिया लहजे में भारत को चुनाव प्रधान देश के नाम पर पुकारने लगे हैं। यह बात भले ही हास्य परिहास के लिए कही गई हो पर निश्चित रूप से देश में प्रचलित वर्तमान चुनाव व्यवस्था इस बात को प्रमाणित भी कर रहा है क्योंकि विधान सभा, लोकसभा, पंचायत, नगरीय निकाय के साथ ही मंडी, सहकारी सोसायटी आदि छोटे छोटे चुनाव लगातार प्रक्रियाधीन होने के साथ ही प्रशासनिक बाधाओं यथा आदर्श आचार संहिता के आड़ में कार्यालयीन कार्यों के साथ ही धरातल पर होने वाले विकास कार्य भी बुरी तरह बाधित हो रहे हैं फलस्वरूप चुनावी व्यय लगातार कई गुना बढ़ गई है तो वहीं विकास की गति कई गुना कम हो गई है। आज चुनावी प्रक्रियाओं के बीच शिक्षक- शिक्षिकाओं के संलग्न होने की बाध्यता से शिक्षा गुणवत्ता भी बुरी तरह से दुष्प्रभावित हो रही है।विधि आयोग एवं नीति आयोग के वर्तमान आंकड़ों के अनुसार भारत में लोकसभा चुनाव में करीब 100000 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं तो राज्य विधान सभा चुनाव में कमोबेश 80000 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं जो आने वाले समय में लोकसभा चुनाव 2029 में यह आंकड़ा बढ़ कर 140000 करोड़ रुपए तथा राज्यों के आगामी विधान सभा चुनावों में खर्च 100000 करोड़ रूपए से भी पार होने की संभावना है, तब निश्चित रूप से यह चिंतन का विषय है कि आम चुनाव में खर्च के बढ़ते आंकड़े और विकास कार्यों की घटते रफ्तार का स्थाई हल क्या हो सकता है। इसी विषय को लेकर वर्तमान सरकार ने 2014 से एक राष्ट्र-एक चुनाव पर गंभीरता से विचार करना शुरू किया और फिर 2018 में विधि आयोग के एक राष्ट्र-एक चुनाव की कल्पना को साकार करने सरकार प्रतिबद्धता के साथ जुट गई है तथा दिसंबर 2024 में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने विधि आयोग के एक राष्ट्र-चुनाव के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है तथा इसे संसद में प्रस्तुत कर कानूनी जामा पहनाने के पहले आम सहमति की कवायद शुरू हो गई है क्योंकि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में संशोधन से ही एक राष्ट्र-एक चुनाव का संकल्प साकार होगा। अब सरकार की ओर से सीधे संसद में संशोधन विधेयक के बजाय आम सहमति के लिए पसीना बहाने के पीछे निहितार्थ पर विचार करें तो निश्चित रूप से सरकार इस जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में संशोधन को लेकर  भ्रांतिवश देश में संभावित किसी भी प्रकार के बवाल से हमेशा की तरह बचना चाहती है इसलिए एंटीडोज़ के रूप में इस संशोधित कानून को लागू करने के बाद संभावित रिएक्शन से बचने के लिए एंटीडोज के रूप में यह आम या जन सहमति का महती प्रयास देश भर में जारी है। अब हम देशवासियों को समझना है कि देश में लगातार और बार-बार का चुनाव हमारे लिए किसी भी रूप में लाभदायक नहीं है तब सरकार ने अगर एक राष्ट्र-एक चुनाव को लागू करने का मन बनाया है तो हम सब भी इस संकल्प के साथ खड़े होकर दलगत राजनीति से परे इसका समर्थन करें ताकि जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में अविलंब संशोधन हो और व्यर्थ के चुनावी हलाल और बवाल से देश का नुकसान न हो।