भाग्य लेकर तो सभी जन्म लेते हैं लेकिन भाग्य को सौभाग्य में बदलना यह अपने सदकर्मों का फल है – साध्वी दीदी मां ऋतंभरा देवी


सक्ती में चल रही है साध्वी दीदी मां ऋतंभरा देवी की भागवत कथा
सक्ती । भागवत कथा में व्यासपीठ के आसंदी से साध्वी दीदी मां ने कहा कि धर्म के प्रति आस्था रखने वाले यहाँ विराजमान आप सभी जनों का अपनी परम्परा के प्रति जो विश्वास है, जो समर्थन है वह आपके सौभाग्य को निश्चित करता है। भाग्य लेकर तो सभी जन्मते हैं लेकिन भाग्य को सौभाग्य में बदलना, यह हमारे अपने सद्कर्मों का फल है। कभी-कभी लोगों के मन में विचार आता है कि उनकी जितनी योग्यता है उसके अनुरूप उतनी प्रतिष्ठा, उतनी प्रसिद्धि या उतना अनुमोदन नहीं प्राप्त हुआ। योग्यता तो ज्यादा थी, पात्रता तो ज्यादा थी लेकिन जितनी पात्रता थी, जितना त्याग किया, जितना परिश्रम किया, उतना फल नहीं मिला।
अक्सर लोग यही बात कहते हैं कि ‘हमने अपने इस जन्म में तो कभी कोई पाप नहीं किया फिर हम दंड क्यों भोग रहे हैं?’ यह विचार इस बात का संकेत है कि जो हमें प्राप्त है वो पर्याप्त नहीं लगता। यही वह माया है जो आपके पास सबकुछ होते हुए भी आपको तथाकथित रूप से ‘छोटा’ दिखा देती है। इसी के कारण आप अपनी दृष्टि में न्यून हो जाते हैं, बेचारे हो जाते हैं। मनुष्य होकर स्वयं को असहाय अनुभव करना या बेचारा अनुभव करना अच्छी बात नहीं है। किसी की तुलना में स्वयं को खड़ा करके अपने ही छोटे होने की पीड़ा को हम भोगते हैं। ये जीवन का सही तरीके से जीने का लक्षण नहीं है। तो फिर कैसे होगा? आप कहोगे कि ‘दीदी माँ! हमने बड़े प्रयत्न किये परन्तु ऐसा सुख कभी नहीं मिला, जिसके बाद दुःख न आया हो।’
तो स्मरण रखियेगा कि जो सुख दूर से निमंत्रण देता है, वही सुख जब निकट आता है तो थोड़े समय बाद दुःख का रूप धारण कर लेता है। प्रायः आप देखना कि जिनके बड़े सम्मान होते हैं वो लोग थोड़ी सी उपेक्षा में ही अपना अपमान अनुभव करने लगते हैं। सबने हमें प्रणाम किया परन्तु यदि किसी एक ने हमारे सामने हाथ नहीं जोड़े, तो दृष्टि वहीं पर जाती है। ये कैसा दृष्टिकोण है! ये कैसा नजरिया है! हमारे विचारने का ये कैसा तरीका है! आप हमेशा अनुभव करना कि जो पा लिया, उस पर हमारी दृष्टि नहीं है। उसके लिए ईश्वर के प्रति धन्यवाद नहीं है। दृष्टि उसी पर है जो अब तक नहीं मिला। इसी कारण से अधिसंख्य लोगों का अन्तर्मन दुःखों से भरा हुआ है। ध्यान रखियेगा कि मैं किसी कष्ट की बात नहीं कर रही हूँ। कष्ट तो शरीर को होता है जिसे दूर किया जा सकता है परन्तु दुःख मन को होता है और उसकी औषधि भगवत स्मरण ही है जो आज ‘भागवत’ स्वरूप में स्वयं चलकर आपके घर आंगन में आई है। भागवत कथा बताती है कि जो भी अपने ‘स्व’ में स्थापित हुआ वो परमानन्द को प्राप्त करता है। ‘मैं ही पूर्ण में समाया हूँ और पूर्ण ही मुझमें समाया है’ श्रीमद् भागवत कथा यही कहती है। इसीलिए श्रीमद् भागवत महापुराण के प्रथम श्लोक में ही उसे ‘सच्चिदानन्द रूपाय’ कहा गया है। वो सत् है, वो चित् है, वो आनन्द है। जो पहले भी था, अब भी है और बाद में भी रहेगा, वही सच्चिदानन्द है।
आज कथा महोत्सव में गजेंद्र मोक्ष की चर्चा करते हुए दीदी माँ ने कहा कि -“महर्षि अगत्स्य के शाप से राजा इंद्रद्युम्न ही गजेन्द्र हो गए थे और गन्धर्वश्रेष्ठ हूहू महर्षि देवल के शाप से ग्राह (मगरमच्छ) हुए। सरोवर में उतरे गजेन्द्र का पैर उस मगर ने पकड़ लिया। शिकार और शिकारी का यह संघर्ष चलते हुए सहस्त्र वर्ष तक चलता रहा।
अंततः गजेन्द्र का शरीर शिथिल हो गया। उसके शरीर में शक्ति और मन में उत्साह नहीं रहा। परन्तु जलचर होने के कारण ग्राह की शक्ति में कोई कमी नहीं आई। उसकी शक्ति बढ़ गई। वह नवीन उत्साह से अधिक शक्ति लगाकर गजेन्द्र को खींचने लगा। असमर्थ गजेन्द्र के प्राण संकट में पड़ गए। किन्तु पूर्व जन्म की निरंतर भगवद आराधना के फलस्वरूप उसे भगवत्स्मृति हो आई। उसने निश्चय किया कि मैं कराल काल के भय से चराचर प्राणियों के शरण्य सर्वसमर्थ प्रभु की शरण ग्रहण करता हूं। इस निश्चय के साथ गजेन्द्र मन को एकाग्र कर पूर्वजन्म में सीखे श्रेष्ठ स्त्रोत द्वारा परम प्रभु की स्तुति करने लगा।
गजेन्द्र की स्तुति सुनकर सर्वात्मा सर्वदेव रूप भगवान विष्णु प्रकट हो गए। गजेन्द्र को पीड़ित देखकर भगवान विष्णु गरुड़ पर आरूढ़ होकर अत्यंत शीघ्रता से उक्त सरोवर के तट पर पहुंचे। गजेन्द्र को अत्यंत पीड़ित देखकर भगवान विष्णु गरुड़ की पीठ से कूद पड़े और गजेन्द्र के साथ ग्राह को भी सरोवर से बाहर खींच लाए और तुरंत अपने तीक्ष्ण चक्र से ग्राह का मुंह फाड़कर गजेन्द्र को मुक्त कर दिया। इस प्रकार श्रीहरि के पावन स्मरण गजेन्द्र को कष्टों से मुक्ति प्रदान की।
कथा महोत्सव में वामन अवतार कथा के साथ ही श्रीराम और श्रीकृष्ण जन्मोत्सव के जीवन्त मंचन ने कथा पंडाल में उपस्थित जनसमुदाय को भावविभोर कर दिया। श्रद्धालुओं ने प्रभु की जय जयकार करते हुए उन्हें नमन किया।